White वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैं इलाहाबाद के पथ पर -
वह तोड़ती पत्थर
कोई ना छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार ;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन ,प्रिय- कर्म -रत मन,
गुरु हथोड़ा हाथ ,
करती बार-बार प्रहार ;-
सामने तरु -मालिका अट्टालिका ,प्राकार ।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप; उठी झुंझलाते हुए लू
रूई - ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगी छा गई,
प्राय: हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर !
देखे देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे इस दृष्टि से
जो मार खा गई रोई नहीं,
सजा सहज सीतार ,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार;
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढोलक माथे से गिरे सीकर, लीन होते कर्म में फिर जो कहा -
मैं तोड़ती पत्थर
'मैं तोड़ती पत्थर।'
- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
©gudiya
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