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Unsplash शाम घर आकर जब मशायद खुद को झड़ाया तो इतनी आँखें गिरी जमीं पर कुछ घूरती, कुछ रेंगती ,कुछ टटोलती मेरा तन मन कुछ आस्तीन में फंसी थी ,कुछ कॉलर में अटकी थी कुछ उलझी थी बालों में गर्दन के पीछे चिपकी मिली कुछ उंगलियों में पोरों में, कुछ नशीली कुछ रसीली कोई बेशर्मी से भरी हुई ये आंखें ऐसी क्यों हैं? उनकी हमारी सी आंखें पर इतना अंतर क्यों है? मैं रोज़ प्रार्थना करती हूँ कुछ न चिपका मिले मुझ पर जैसी मैं सुबह जाती हूँ घर से , वैसे साफ सुथरी आऊं वापस मगर ऐसा हो पाता नहीं बोझ उठाये नजरों का हरदम चलते रहना नियति है मेरी, शायद। ©Sushma

#Ladki  Unsplash शाम घर आकर जब मशायद खुद को झड़ाया तो
इतनी आँखें गिरी जमीं पर
कुछ घूरती, कुछ रेंगती ,कुछ टटोलती मेरा तन मन
कुछ आस्तीन में फंसी थी ,कुछ कॉलर में अटकी थी
कुछ उलझी थी बालों में
गर्दन के पीछे चिपकी मिली
कुछ उंगलियों में पोरों में, कुछ नशीली कुछ रसीली
कोई बेशर्मी से भरी हुई
ये आंखें ऐसी क्यों हैं? उनकी हमारी सी आंखें
पर इतना अंतर क्यों है?
मैं रोज़ प्रार्थना करती हूँ
कुछ न चिपका मिले मुझ पर
जैसी मैं सुबह जाती हूँ घर से ,
वैसे साफ सुथरी आऊं वापस
मगर ऐसा हो पाता नहीं
बोझ उठाये नजरों का हरदम
चलते रहना नियति है मेरी, शायद।

©Sushma

#Ladki शाम घर आकर जब मशायद खुद को झड़ाया तो इतनी आँखें गिरी जमीं पर कुछ घूरती, कुछ रेंगती ,कुछ टटोलती मेरा तन मन कुछ आस्तीन में फंसी थी ,कुछ

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Unsplash शाम घर आकर जब मशायद खुद को झड़ाया तो इतनी आँखें गिरी जमीं पर कुछ घूरती, कुछ रेंगती ,कुछ टटोलती मेरा तन मन कुछ आस्तीन में फंसी थी ,कुछ कॉलर में अटकी थी कुछ उलझी थी बालों में गर्दन के पीछे चिपकी मिली कुछ उंगलियों में पोरों में, कुछ नशीली कुछ रसीली कोई बेशर्मी से भरी हुई ये आंखें ऐसी क्यों हैं? उनकी हमारी सी आंखें पर इतना अंतर क्यों है? मैं रोज़ प्रार्थना करती हूँ कुछ न चिपका मिले मुझ पर जैसी मैं सुबह जाती हूँ घर से , वैसे साफ सुथरी आऊं वापस मगर ऐसा हो पाता नहीं बोझ उठाये नजरों का हरदम चलते रहना नियति है मेरी, शायद। ©Sushma

#Ladki  Unsplash शाम घर आकर जब मशायद खुद को झड़ाया तो
इतनी आँखें गिरी जमीं पर
कुछ घूरती, कुछ रेंगती ,कुछ टटोलती मेरा तन मन
कुछ आस्तीन में फंसी थी ,कुछ कॉलर में अटकी थी
कुछ उलझी थी बालों में
गर्दन के पीछे चिपकी मिली
कुछ उंगलियों में पोरों में, कुछ नशीली कुछ रसीली
कोई बेशर्मी से भरी हुई
ये आंखें ऐसी क्यों हैं? उनकी हमारी सी आंखें
पर इतना अंतर क्यों है?
मैं रोज़ प्रार्थना करती हूँ
कुछ न चिपका मिले मुझ पर
जैसी मैं सुबह जाती हूँ घर से ,
वैसे साफ सुथरी आऊं वापस
मगर ऐसा हो पाता नहीं
बोझ उठाये नजरों का हरदम
चलते रहना नियति है मेरी, शायद।

©Sushma

#Ladki शाम घर आकर जब मशायद खुद को झड़ाया तो इतनी आँखें गिरी जमीं पर कुछ घूरती, कुछ रेंगती ,कुछ टटोलती मेरा तन मन कुछ आस्तीन में फंसी थी ,कुछ

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