White टूटी खिड़कियाँ, वो कच्चा मकान,
जहां रहता था कभी सच्चा इंसान।
मॉडर्न के बेहकावे में हम आकर,
कैसे शरीफ दिखाता झूठा इंसान।
रीति वो पुरानी कितनी प्यारी थी,
जहां हफ्तों रुकता था हर मेहमान।
भाईचारे की भावना एक हस्ती थी,
अब भाई को नहीं मिलता सम्मान।
अब किराए का शहर छोड़कर,
उसी गांव में फिर से बस रहा इंसान।
खो दिया है सबका अपमान कर,
अब गैरों में ढूंढता है सम्मान।
ये कैसा दौर चला है कलयुग का,
देखकर भी कुछ न सीखता है इंसान।
मुकर जाता है एक मदद के नाम से,
अभय से ना रखता है जान-पहचान।
©theABHAYSINGH_BIPIN
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