मीलों तक जाना छोड़ दिया,
क्यों तुमने चलना छोड़ दिया?
यह बात गगन को खटकेगी,
पंछी ने उड़ना छोड़ दिया।
लोगों का आना जाना है,
जीवन का यही तराना है।
क्यों गैरों से जब बिछड़े तब,
अपना घर चलना छोड़ दिया।
एकाकीपन इस जीवन के ,
मेलों में आता रहता है।
किंतु यह जटिल समस्या है,
खुद में क्यूंँ रहना छोड़ दिया?
जो होंठ तेरे दर्दों में भी ,
है सुबक नहीं पाया अबतक।
उन होंठों से क्या शिकवा हो,
जो तुझको जपना छोड़ दिया।
ख़्वाहिश हर पल जिंदा रखना,
तुम अल्हड़ सी मुस्कानों की।
किस फ़रेब की दुनियांँ खातिर?
तुमने हंँसना छोड़ दिया।
दीपक झा "रुद्रा"
©दीपक झा रुद्रा
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