कभी - कभी , यूं ही...
कभी -कभी, यूं ही... मन सारे जोड़ घटाव परे रख श्रांत भाव से तटस्थ हो जाता है, कोई आशा निराशा या प्रत्याशा नहीं होता। रहता है तो बस एक शिथिल मन कहीं ठहरा हुआ । भीतर के सारे कलोल करते , हिलोर मारते भाव दरिया के गहराई पाने जैसा शांत बहने लगता है न कोई उठाव न कहीं दबाव..।
लेखन की मन: स्थिति हर क्षण एक रुपता लिए अग्रेषित हो कदापि जरूरी नहीं, लेखनी की तीव्रता किसी विशेष क्षण के लिए प्रतिबद्ध होती है जहां पर गति वश में नहीं होती,रहती है तो बस पैनी दृष्टि लिए अंतर की अंतिम पड़ाव पर मोती या कीमती रत्न की खोज में जिसे अपने समीप पा हम अकस्मात ही भावविभोर हो जाते हैं या खुद भी प्रयास रत कि शायद हम भी कुछ ऐसा करामात कर पाएं। सफल होना,न होना अलग बात है।
अभी कुछ दिनों से लेखनी मनःस्थिति बदलने की बाट में खुद से दूर है शायद उस तैयारी में जहां छलांग से पहले चार कदम पीछे हट जाना होता है और यदि यह सच है तो निश्चित ही कुछ और अच्छी रचना पढ़ने मिलेगी अन्यथा एक कलमकार हारा थका कल्पना से दूर चुनौतियों से बिना संघर्ष किए किसी सामान्य मनुष्य की भांति जीवन जिसे अपनी अपनी समझ में कहते हैं की राह में है।
और यदि सच में ऐसा है तो होना नहीं चाहिए,आग खुद के अंदर की जलाना होगा, उतार कर लाना होगा रंगीन इंद्रधनुषीय सतरंगी सपने, आशाओं से भरे कल की दुनिया , हौसला जिससे पत्थर पानी हो जाता है, क्योंकि कुछ लोगों का जीवन खुद के लिए नहीं होता ।
--डा. विजेन्द्र विशाल
©Dr Vijendra Vishal
#DrVijendraVishal
#Jindagi
#खयाल
#मन_की_बात
#यूंही