क्या आज भी आता है मेरा ख़याल क़भी क़भी !
जब कभी घर पर तन्हा अकेली बैठी होती हो, क्या मेरा खयाल आता है ।
जब कभी रात में लाइट चली जाया करती है तब अँधेरे में डरते हुए गले लगने को क्या मेरा ख़याल आता है ।
शाम को चाय बनाते वक़्त क्या मेरे लिए भी एक कप निकालती हो आज भी ?
कहीं कोई पुरानी ग़ज़ल सुनती होंगी तब भी क्या नहीं आता मेरा ख़याल, और जब कहीं किसी के साथ बैठे हुए दोस्तों का ज़िक्र उठे तब तो सोचती होंगी न मेरे बारे में!
कभी जब कोई सुनने वाला न हो और किसी से बात करने का जी करे तब भी नहीं उभरता मेरा चेहरा ज़हन में?
यूँ तो सारे सवालों के जवाब हैं मेरे पास पर यूँ ही खुद से पूछता रहता हूँ यही सवाल बार बार।
क्या आज भी आता है मेरा ख़्याल!
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