ज़ेहन पर जोर देने से भी याद आता नहीं है कि क्या देखते थे,
सिर्फ इतना पता है हम आम लोगों से बिलकुल जुदा देखते थे,
तब हमें अपने पुरखों से विरसे में आयी बददुआ याद आती,
जब तुझे अपनी आँखों के आगे शहर जाता हुआ देखते थे,
सच बताये तो तेरी मोहब्बत नें खुद पर तवज्जो दिलाई हमारी,
तू हमें चूमता था तो हम घर जाकर देर तक आइना देखते थे,
सारा दिन रेत के घर बनाते हुए और गिराते हुए बीत जाता,
शाम होते ही हम दूरबीनों से अपनी छत पर खुदा देखते थे,