अर्ज़ है......
यूँ लगता है के जैसे ज़िन्दगी हाथों से फिसल रहीं है,
अभी तो ठीक से जीया भी नहीं, और उम्र ढल रही है।
निकलकर जो देखा, आज चारदीवारी से बाहर तो लगा,
जैसे ज़िंदगी हरपल करवट बदल रही है।
यकीन ना हुआ हमें, हैरान से रह गए हम,
की ज़िन्दगी कैसे आग की तरह जल रही है।
कितने गुमान करते है लोग,इस मिट्टी के शरीर पर,
जो वक़्त के साथ-साथ, धीरे-धीरे पिघल रही है।
आईने में जो देखा सूरत अपनी, तो समझ आया,
की ज़िन्दगी कैसे,एक-एक करके पन्ने पलट रही है...!!!
©Divya Raj Tomar
अर्ज़ है......
यूँ लगता है के जैसे ज़िन्दगी हाथों से........
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