शीर्षक- तुम कितनी अच्छी हो। सुबह की किरणे कि जैसी | हिंदी कविता

"शीर्षक- तुम कितनी अच्छी हो। सुबह की किरणे कि जैसी तुम लगती हो। वीणा की सुर कि तरह तुम कहती हो। कमल के सौंदर्य की तरह तुम बाला। गुलाबी आंखे है तुम्हारी,," तुम्हें जाम कहे या हाला। कभी शरारत करती हो तुम मुझसे,," तो तुम लगती बच्ची हो। तुम कितनी..................................।। चंचल स्वभाव है तुम्हारा, घुंघराले बाल होठों पर। संवारती उसे अपने हाथों से मुस्काकर। कभी छन - छन पायल पांव में बजाती। कभी मुखड़ा शर्माकर ओढ़नी से ढक लेती। कभी छिप कर देखती हो तो, लगती कली से भी कच्ची हो। तुम कितनी.......................।। सरकती है तुम्हारी चुनर भू- धरा पर। प्यार से उठाती उसे झुक- झुककर। मधुकर भी आकर गूंजे तुम्हारे कानों में, तुमसे वो भी प्यार करें। खूबसूरती की चाहत उनको भी है, वो हां हां भरे। मनोज कुमार के तुम होकर रहोगी, उनके दिल से सच्ची हो। तुम कितनी......................।। ©manoj kumar "

 शीर्षक- तुम कितनी अच्छी हो।

सुबह की किरणे कि जैसी तुम लगती हो।
वीणा की सुर कि तरह तुम कहती हो।
कमल के सौंदर्य की तरह तुम बाला।
गुलाबी आंखे है तुम्हारी,," तुम्हें जाम कहे या हाला।
कभी शरारत करती हो तुम मुझसे,," तो तुम लगती बच्ची हो।
तुम कितनी..................................।।


चंचल स्वभाव है तुम्हारा, घुंघराले बाल होठों पर।
संवारती उसे अपने हाथों से मुस्काकर।
कभी छन - छन पायल पांव में बजाती।
कभी मुखड़ा शर्माकर ओढ़नी से ढक लेती।
कभी छिप कर देखती हो तो, लगती कली से भी कच्ची हो।
तुम कितनी.......................।।


सरकती है तुम्हारी चुनर भू- धरा पर।
प्यार से उठाती उसे झुक- झुककर।
मधुकर भी आकर गूंजे तुम्हारे कानों में, तुमसे वो भी प्यार करें।
खूबसूरती की चाहत उनको भी है, वो हां हां भरे।
मनोज कुमार के तुम होकर रहोगी, उनके दिल से सच्ची हो।
तुम कितनी......................।।

©manoj kumar

शीर्षक- तुम कितनी अच्छी हो। सुबह की किरणे कि जैसी तुम लगती हो। वीणा की सुर कि तरह तुम कहती हो। कमल के सौंदर्य की तरह तुम बाला। गुलाबी आंखे है तुम्हारी,," तुम्हें जाम कहे या हाला। कभी शरारत करती हो तुम मुझसे,," तो तुम लगती बच्ची हो। तुम कितनी..................................।। चंचल स्वभाव है तुम्हारा, घुंघराले बाल होठों पर। संवारती उसे अपने हाथों से मुस्काकर। कभी छन - छन पायल पांव में बजाती। कभी मुखड़ा शर्माकर ओढ़नी से ढक लेती। कभी छिप कर देखती हो तो, लगती कली से भी कच्ची हो। तुम कितनी.......................।। सरकती है तुम्हारी चुनर भू- धरा पर। प्यार से उठाती उसे झुक- झुककर। मधुकर भी आकर गूंजे तुम्हारे कानों में, तुमसे वो भी प्यार करें। खूबसूरती की चाहत उनको भी है, वो हां हां भरे। मनोज कुमार के तुम होकर रहोगी, उनके दिल से सच्ची हो। तुम कितनी......................।। ©manoj kumar

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