थी घटाऐं जोर की सोचा की जोरदार बरस जाएगी ,
पर क्या करें बरसी नहीं सिर्फ़ गरज़ के ही चली गई।
थीं उम्मीदें खुशियों के इंतज़ार में,
पर क्या करें खुशियां मिलीं नहीं सिर्फ़ उम्मीदें तरस के ही चली गई।
सूरज भी है अंधियारा नहीं है,
पर तपस भी बहुत है।
छांव भी है धूप नहीं हैं,
पर उमस भी बहुत है।
न हारा हूँ न थका हूं न रूका हूं फिर से चल पड़ा हूं,
अबके प्यास एसी है की सीधे समुन्द्र से ही मिलने निकल पड़ा हूँ।
स्वरचित
✍✍हसन खान
©Hasan Khan Shatha
#Struggle poem
संघर्ष पर कविता
#realization