एक चिठ्ठी माँ के नाम
माँ आज मै सुबह उठी,
सूरज से भी पहले,
घर का सारा काम किया,
खाने मे भी खूब तरह की चीज़े बनाई,
पर माँ मैं फिर भी क्यूँ एक अछि गृहणी नही बन पाती हूँ,
हर दिन कुछ ना कुछ बाकी रह जाता है,
हर कोने को समेटा करती हूँ,
पर कभी ,
तस्वीर पे जमी धूल तो कभी बिखरा हुआ अल्मीरा
मुझे चिढ़ाता है,,,।।
थक जाती हूँ पर, हारती नहीं
इतनी उलझ गयी हूँ की खुद को भी सवा -रती नहीं।।
फिर वो बाँकपं
आँखो के सामने घंटो मंड- राता हैं।
जब आईना मेरा पहला प्यार हुआ करता था,
पहरों खुद को निहारा करती थी ,
खास था वो पल जो मैं खुद के साथ गुजारा करती थी।।
" ओह मैं भी क्या सोच ने लगी "
औरत मे जन्मी हुँ, ऐ तो मेरी ज़िम्मेदारी है,
कब से हमारी
ऐसे ही जिये जाने की रीत जारी है।।
शुक्रिया माँ वो महीने के पांच दिन मेरे नखरे उठाने के लिए,
माथे को सह ला कर मुझे नींद से सुलाने के लिए,,,
पर अब तेरी बेटी दर्द को सह लेना सिख गयी है,
अब वो पांच दिन मेरी ज़िंदगी मे नही आता,
बांकपं मे जो सहा नहीं जाता था, उस दर्द से टूट गया है मेरा नाता।
दूर तक अंधेरा है, दिखता कही प्रकाश नहीं,
क्या स्त्री के जीवन मे कोई अवकाश नहीं।।
Richa sinha
चिठ्ठी माँ के नाम ( गृहणी को समर्पित ) @Monika kundu @Raksha Singh Shital Bharti @Aakansha Rathore @Shivangi