क्या सचमुच हम चाहने लगते हैं
बिना मिले ही किसी को
शायद हां
पहला प्रेम भी तो बिना मिले हुआ
जब प्यासा की नायिका को देखकर
पागलों की तरह बाहर निकला
दिलों दिमाग पर जाने कब तक
उसका नशा छाया रहा
क्या पता मिलने के बाद भी
उम्र के किसी दौर में
किसी से प्रेम हुआ हो
लेकिन याद नहीं
अपूर्णता का अहसास ही
ताउम्र जिंदा रखता है
उस प्रेम को
जिसमें सब कुछ सोच लेते हैं
कल्पनाओं में ही सही
क्यूंकि पता होता है
यथार्थ की कड़वाहट
शायद बर्दाश्त नहीं होता
आखिर क्यूं या फिर क्या
महसूस करते हैं
चेहरा अल्फ़ाज़ या
कोमल उंगलियों के पोर
कुछ तो होता है
वरना आज फिर से
दूर होते चांद को
नजदीक से देखने की चाहत
उस पर फिर दिल ने कहा
यही तो है तुम्हारी मुहब्बत
©संजय श्रीवास्तव
#Apocalypse