बन बैठी हूं आज मैं कातिल ख़ुद के जज्बातों का
अपने सांसों से रूठ कर क्या लिखूं मैं ?
अभी जिंदा हूं मैं खुद को जीतने की उम्मीद में
सारे इलज़ाम बेबुनियाद थे मेरे वक़्त के कटघरे में
आखिरी मुलाकात में मेरे अस्कों ने हंस कर कहा था
सब ठीक ही तो था , बस मैं गलत थी.....
कुछ यूं बिखरे पड़े थे मेरे किस्मत के पन्ने
हाथों में आकर कहीं छूट गए थे बनकर एहसास अपने
मालूम नहीं और न याद मुझे किसने जख्मों से वाकिफ कराया था
बदले - बदले से यहां हर इंसान नजर आता है
और मेरा दिल आहिस्ता से मुझे आवाज़ लगाता है
सब ठीक ही तो था , बस मैं गलत थी.....
कभी - कभी सहम सी जाती हूं कुछ इस तरह से मैं
मेरे अंदाज मुझसे शिकायत फरमाते है
प्यार के कस्ती में सवार थी अब नफ़रत के आग में
दफ़न रहती हूं , गहरी नींदों का पिटारा जो मिला था
कई अरसों से मैं जगी नहीं हूं अंधेरों ने मुझे जकड़ कर जो रखा था
सब ठीक ही तो था , बस मैं गलत थी.....
_____________________________________________
______बन बैठी हूं आज मैं कातिल ख़ुद के जज्बातों का
अपने सांसों से रूठ कर क्या लिखूं मैं ?
अभी जिंदा हूं मैं खुद को जीतने की उम्मीद में
सारे इलज़ाम बेबुनियाद थे मेरे वक़्त के कटघरे में
आखिरी मुलाकात में मेरे अस्कों ने हंस कर कहा था
सब ठीक ही तो था , बस मैं गलत थी.....