White ख़ुद उजाड़ी बगिया चाहतों की अपनी
ख़ुद से शिकायत रही तुमसे गिले नहीं ,
कलम किया ऐसे दरख़्तों के शीश-ए-दिल
बहारों ने दम दिखाया पर गुल खिले नहीं,
चाहते तो ख़ुद खोकर उसे पा लिया होता
अडिग थी शख्सियत ज़मीर से हिले नहीं,
अब तो कटती है जिंदगी दीवार घड़ी जैसी
जो समय को पंख देती, ख़ुद के खुले नहीं,
लगा दी पाबंदियां तुमनें इजहार करने पर
लब अब तक ख़ामोश हैं कभी हिले नहीं ,
रेल की पटरी सी रही मुसाफ़िरी उल्फत की
मंज़िल तो एक थी पर सफ़र में मिले नहीं l
©"निश्छल किसलय" (KISALAY KRISHNAVANSHI)
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