'शब्द' की ध्वनि तो हम सबके हृदय में जन्म से ही जारी हो जाती है और आखरी सांस तक नहीं रुकती। प्रभुधाम से पैदा होने वाली यह 'दिव्यधुन' जीव के अत्यधिक निकट है। इसके बावजूद उस कल्याणकारी संगीत से वंचित रह जाना हमारा दुर्भाग्य है।
हमारे कमरे में टाइम पीस रखा हो, तो दिनभर बाहर के शोरगुल के कारण हमें उसकी लगातार हो रही टिकटिक सुनाई नहीं देती। परंतु जब रात होती है और बाहर का शोर खत्म हो जाता है, उसी टिकटिक का ऊंचा स्वर हमारा सोना दूभर कर देता है।
"शब्दधुन" सुनने के लिए जिज्ञासु को बाहरी आवाजों की तरफ से अपने कान बंद कर लेने चाहिए और अंदर के सूक्ष्म कानों से शब्दधुन को सुनना चाहिए।
©Andy Mann
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