हम रोज़ रोज़ सुबह सूरज से पहले उठते है एक नए दिन की

"हम रोज़ रोज़ सुबह सूरज से पहले उठते है एक नए दिन की शुरुआत के लिए। इस उम्मीद के साथ कि आज कुछ अधूरा न छूटे बीते कल के कुछ अधूरे काम और नए दिन के कुछ नये काम। लेकिन घड़ी की सुईयां तो इतनी तेज़ भागती है जैसे सुबह से दौड़ने के लिए ही बैठी हो। पीछा करते करते 12 कब बज जाए पता ही न चलता और फिर अधूरे काम को अधूरा ही छोड़कर पकड़ लेते है नए काम को कि इसमें कुछ अधूरा न रह जाए कितना भी धीर-गंभीर ढंग से चलने की कोशिश करो लेकिन शाम आते आते हम उसी रास्ते पर लौट है जिसपर बीते दिन चले थे। एक आह के साथ झूठे मन से किये पर खेद जताते हुए समझाते है खुद को कि हो ही जायेगा लेकिन रात के 10 बजते बजते हिम्मत जवाब दे जाती है। और बैठ जाते है शांत होकर एक थके योद्धा की तरह भविष्य की चिंता के साथ। और खोलते है बिस्तर की परतों को सोने के लिए मन में एक आस लिए कि अगली सुबह शायद अलग होगी // ©Saurabh Yadav"

 हम रोज़ रोज़ सुबह सूरज से पहले उठते है
एक नए दिन की शुरुआत के लिए। 
इस उम्मीद के साथ कि आज कुछ 
अधूरा न छूटे
बीते कल के कुछ अधूरे काम 
और नए दिन के कुछ नये काम।
लेकिन घड़ी की सुईयां तो इतनी तेज़ 
भागती है जैसे सुबह से दौड़ने के लिए 
ही बैठी हो। 
पीछा करते करते 12 कब बज जाए पता ही 
न चलता
और फिर अधूरे काम को अधूरा ही छोड़कर 
पकड़ लेते है नए काम को कि इसमें कुछ अधूरा न रह जाए
कितना भी धीर-गंभीर ढंग से चलने की कोशिश करो
 लेकिन शाम आते आते हम उसी रास्ते पर लौट है
 जिसपर बीते दिन चले थे। 
एक आह के साथ झूठे मन से किये पर खेद जताते हुए
 समझाते है खुद को कि हो ही जायेगा
लेकिन रात के 10 बजते बजते हिम्मत जवाब दे जाती है। 
और बैठ जाते है शांत होकर एक थके योद्धा की तरह
भविष्य की चिंता के साथ।
और खोलते है बिस्तर की परतों को सोने के लिए 
मन में एक आस लिए कि अगली सुबह शायद अलग होगी
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©Saurabh Yadav

हम रोज़ रोज़ सुबह सूरज से पहले उठते है एक नए दिन की शुरुआत के लिए। इस उम्मीद के साथ कि आज कुछ अधूरा न छूटे बीते कल के कुछ अधूरे काम और नए दिन के कुछ नये काम। लेकिन घड़ी की सुईयां तो इतनी तेज़ भागती है जैसे सुबह से दौड़ने के लिए ही बैठी हो। पीछा करते करते 12 कब बज जाए पता ही न चलता और फिर अधूरे काम को अधूरा ही छोड़कर पकड़ लेते है नए काम को कि इसमें कुछ अधूरा न रह जाए कितना भी धीर-गंभीर ढंग से चलने की कोशिश करो लेकिन शाम आते आते हम उसी रास्ते पर लौट है जिसपर बीते दिन चले थे। एक आह के साथ झूठे मन से किये पर खेद जताते हुए समझाते है खुद को कि हो ही जायेगा लेकिन रात के 10 बजते बजते हिम्मत जवाब दे जाती है। और बैठ जाते है शांत होकर एक थके योद्धा की तरह भविष्य की चिंता के साथ। और खोलते है बिस्तर की परतों को सोने के लिए मन में एक आस लिए कि अगली सुबह शायद अलग होगी // ©Saurabh Yadav

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