कविता :-उलझन
दिन भर दिन उलझन बढ़ रही है, आदमी की ।
पर इंसान से खत्म है , इंसानियत आदमी की।
चल रहा है, फूलों की जगह कांटो पर भी।
पर क्या करें, मंजिल ही दुश्मन बनी आदमी की।
इतना बढ़ गया दायरा, गमों का यारों ।
अपने आंसुओं में भी डूब गई कश्ती ,आदमी की।
चाहे आदमी की दवा बन रहा है, आदमी।
आदमी के हाथों से मिट रही है ,हंसती आदमी की।
जिंदगी अब भी जिंदगी नहीं रही ,आदमी की ।
चंद कागज के टुकड़ों में बिक रही ,जिंदगी आदमी की।
चाहे पहुंच गया है आदमी, चांद के उस पार।
पर मिट्टी में मिल रही है मिट्टी, आदमी की।
✍️ अभिमन्यु कुमार
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