हां कुछ स्त्रियां हो जाती है... स्त्रियों से ज्यादा कोमल पुरुषों से ज्यादा कठोर.. जीवन में एक नालायक शराबी और जुआरी या किसी और विसंगति से घिरा हुआ पुरुष आ जाता है.. "चाहे वह पिता पति या पुत्र के रूप में ही क्यों ना हो.
फिर वो न जाने कितने मौन अंतर्द्वंद युद्ध झेलती है अपने घर और बाहर के हालातो से जूझती है
स्त्रीयो नहीं कहती ... वह लड़ती है... वह सहती है और खड़ी रहती है बिना किसी को अपने दुख दर्द को बताएं.. उन डरपोक या गैरजिम्मेदार पुरुषों की तरह बहाने नहीं बनाती... अपनी जिम्मेदारियां से नहीं भागती...ये नहीं कहती कि... मैं थक गई हूं .. अपने मानसिक शारीरिक हालातो से लड़ती हुई..नहीं कहती मुझे आराम चाहिए ।।यह नहीं कहती..मेरे सिर में दर्द है इसलिए मुझे पैग लगाना है.....वह अपने अपने बच्चों की और कभी-कभी उसे पुरुष के परिवार के बीच जिम्मेदारी उठा कर चलती है.. स्त्री महान नहीं कहलाना चाहती...मगर स्त्री होना आसान नहीं
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