हाथ पत्थर के हो गए इमारते बनाते-बनाते साहेब
की अब इन बंजर हाथों पे कोई फसल उपजता ही नही
रात-दिन
तुम चमड़ी का रंग माटी कर दो साहेब
मजदुर अब मजबूर हो चला है रात-दिन
कमसे-कम 2 रोटी का काम दिला दो साहेब
ये पेट हिसाब मांगता है रात-दिन
ये कच्ची दीवारे संभाल लो साहेब
दिहाड़ी के सहारे खड़ा है रात-दिन
मुझको कोई ख़बर नही बीमारी का साहेब
बस एक अख़बार भिजवा दो तुम चूल्हा जलाने को रात-दिन
हर लम्हा वक़्त से मार खाया हु मैं साहेब
मुझको छोड़ो,तुम बस झुगियों को रोटी खिला दो रात-दिन
हर सबेरा आंखों पे अंधेरा छाया है साहेब
तुम बस आंखों को जला दो रात-दिन
कोई आँखें भूखा ना सोये साहेब
तुम बस आंखों पे पहरा लगा दो रात-दिन
की एक रोटी कमाने को कोई हुनर सीखा दो मुझको भी साहेब तुम
रात-दिन
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