हर एक भाषा में
तुम्हारी प्रतीक्षा से लथपथ हू,
किसी भी सपने को मोड़ता हू अपने तरफ
मगर तुम बहुत दूर निकल जाती हो, बहुत आगे
कौन सी भाषा में तुम हो सकती हो पास (?)
कोई भी भाषा नही इस लोक में जिसके सहारे उतर सकू उस पार
जहा तुम्हारे होने की भनक है थोड़ी सी
उम्मीद पर किस भाषा में करू विश्वास,
मेरी प्रतिक्षा से ईश्वर भी थक चुके है
और प्रेम से तुम
दूर दिखती हो, भागता हू बेधड़क
मेरे और तुम्हारे बीच की दूरी
कोई बेशुमार भूख है खत्म ही नही होती
कब तक इसके निगंके तक बचता रहूंगा (!)
याद करने पर भी मुझसे छूट रही हो
कोई भी स्मृति जहन में इतनी देर नही ठहरती
की तुम्हारी बारिश की बनी हुए आंख
मेरी तरफ देखकर, दया दिखा सके कुछ देर
याद तक में , तुम्हारे जाने की गीत बचा है
आती हुई तुम, बहुत कम याद आती हो
तुम भाषाओं की पकड़ से बाहर हो
चुप से भरी किसी दुख की तरह,
हरेक कविता की लंबी दौड़ है
तुम्हारी छाव को छूने की।
✍🏼 सतीश अग्रहरि
©Satish agrahari
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