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हमारे चश्म जो पुरनम हुये है
जुदाई में तेरी हमदम हुये है
मिले है दर्द जो भी मोहब्बत के
यहाँ पर कब किसी के कम हुये है
जिसे चाहा उसी ने ठोकरें दी
जहाँ के जुल्म भी हरदम हुये है
सहे है ज़ख्म हँसकर दिल पे मैंने
सितमगर के सितम क्या कम हुये है
मिला कब साथ हमको रौशनी का
जला के खुद को हम पूनम हुये है
अज़ल जब ज़िन्दगी का आ गया ये
तभी दिलबर के घर मातम हुये है
( लक्ष्मण दावानी ✍ )
20/1/2017
©laxman dawani
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