प्रिय जिंदगी,
माना कि तूने मुझे सताया बहुत है
बचपन से अब तक रुलाया बहुत है
बचपन छीना , बचपना छीना
मासुमियत का भी तो
अहसास होने दिया कभी ना
लुटेरों की बस्ती मिली रही मैं जहां भी
न मेरी कोई हस्ती रही खिली भी मैं कहां थी
न अपने समझ पाए थे... गैरों के भी सताए थे
न जिंदगी समझ आई न मौत पास आई
कुछ न किया फिर भी झेल रही थी
जमाने भर की रुसवाई
जिनके पैर साथ नहीं देते उनका कोई नहीं होता
ये बात मुझे अब समझ में है आई
©Kavita Vijaywargiya
#किस्सा