चलों घूम आये वों बच्चपन का सफ़र
जहाँ नहीं था क़िसी बात का फ़िकर
चलो घूम आये वो बच्चपन का सफ़र
कच्चे क़ो गिन कर ख़ुशी से वो उछलना
गिरना, उठान फ़िर उठ कर संभालना
वहीँ बच्चपन जहाँ एक लुड्डो होता था
जहाँ सँग में दोस्तों का एक झुंड होता था
कागज़ की अपनी एक कस्ती होती थी
कुछ भी हो जायें पर मस्ती होतीं थी
कितना भोला वो बच्चपन का दिन था
जाति-धर्म का थोड़ा भी टेंशन नहीं था
जहाँ पाने-खोने का न था कोई फ़िकर
चलों घूम आये वों बच्चपन का सफ़र..
-कुमार मुकेश-
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