उसी देवी का ही रूप है नारी,
जो घर-घर पूजी जाती है।
छप्पन भोग चढाते मंदिर में,
बूढ़ी माँ भूखी रह जाती है।
पूजा पाठ में अक्सर अपने,
कंजक रूप में पूजी जाती है।
ज़रा देख गौर से यहीं है वो,
जो हर रूप में स्नेह लुटाती है।
माना सब न एक समान,
कुछ मानवता धर्म निभाते हो,
देखते हो जब ऐसा मंज़र, सच कहना..?
क्या...तुम आवाज़ उठाते हो?
फिर क्यों? तुम मनाते हो।
©Ritika Vijay Shrivastava
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