Fire of truth आपके इस शहर में गुजारा नहीं।
अजनबी को कही पर सहारा नहीं।
बह गई मै अगर, तो बुरा क्या हुआ
खींच लेते की तेज धारा मैं नहीं।
आरज़ू में जन्म भर मे खड़ी रहीं
आपने ही कभी तो पुकारा नहीं।
हाथ मैंने बढ़ाया किया बारहा
आपके साथ मेरा गवारा नहीं।
मौन भाषा ह्रदय को उन्हें क्यों छुए
जो समझते नयनो का इशारा नहीं।
मै भटकती रहीं रोशनी के लिए
गगन में कही एक तारा नहीं।
लौटने का नहीं अब नाम लो
सामने है शिखर और चारा नहीं।
बस लहर ही लहर एक पर एक है
सिंधु ही है, कही पर किनारा नहीं।
ग़ज़ल की फसल य़ह इसी खेत की किसी और का घर सवारा नहीं।
अगर कुछ नहीं हमारे दरमियाँ...
तो इतनी गहरी खामोशी क्यू है.....