ये कैसा द्वंद ? अंतर्मन का।
जो जीत न पाया मैं खुद को।
हंसता है मन खुद मुझ पर,
तू जीत न पाया है मुझ पर।
यत्न मेरे सब व्यर्थ हुये।
प्रयत्न सभी बेअर्थ हुये।
ये कैसा द्वंद है ? जीवन का
जो जीत न पाया मैं खुद को।
कहता है जग,तू ये ना कर।
तुझसे ना होगा, तू ना कर।
विश्वास मेरा फिर टूट गया।
हौंसला-यत्न सब छूट गया।
ये कैसा द्वंद है मानव का,
जो जीत न पाया मानव को।
©Anand Prakash Nautiyal tnautiyal
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