तुम मुझे अपने चश्में से
क्यों देखते हो ?
कभी हमारे चश्में से देखो
तो तुम्हे पता चले,
ज़िंदा होकर भी जिंदा होना
क्या होता है ।
एक ख्वाहिश की खातिर
उस रास्ते पर भागना जहां !
चारों ओर फूलों की बाड़
और पैरों के नीचे उम्मीद के कांटे
जो चुभते तो नहीं लेकिन
हर रोज दर्द दुगुना कर जाते हैं ।
वो उम्मीद जो पिछले कुछ सालों
से पीछा ही नहीं छोड़ रहे ।
सोते-जागते, खाते-पीते, घूमते-फिरते
दिमाग के दरावजे पर दस्तक दे जाते हैं
मैं ख्वाहिश, तुम ज़िंदा तो हो ना ?
©✍ अमितेश निषाद
तुम मुझे अपने चश्में से
क्यों देखते हो ?
कभी हमारे चश्में से देखो
तो तुम्हे पता चले,
ज़िंदा होकर भी जिंदा होना
क्या होता है ।
एक ख्वाहिश की खातिर
उस रास्ते पर भागना जहां !