तेरी अनकही बातों को मैं समझूँ
बिना बोले ही तेरे जज़्बातों को पढ़ लू
तेरे शोर के बीच छुपी
खामोशी को भी मैं समझूँ
लेकिन फिर भी पता नहीं
क्यूँ तेरा ना हो सकूँ!
क्या वक़्त की साजिश इसे मैं समझूँ
या फिर समझूँ क़िस्मत का खेल
नदी के दो किनारों की तरह जो
साथ रहकर भी एक दूसरे से है दूर
©Chandra Mohan Singh
पास होकर भी है दूर
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