_जीवन की भागदौड़ में_
_क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?_हँसती-खेलती जिन्दगी भी_
_आम हो जाती है!_
एक सबेरा था_
_जब हँसकर उठते थे हम,_
और आज कई बार बिना मुस्कुराए_
_ही शाम हो जाती है!_
_कितने दूर निकल गए_
_रिश्तों को निभाते-निभाते,_
खुद को खो दिया हमने_
_अपनों को पाते-पाते।_
लोग कहते हैं_
_हम मुस्कुराते बहुत हैं,_
और हम थक गए_
_दर्द छुपाते-छुपाते!
खुश हूँ और सबको_
_खुश रखता हूँ,_
लापरवाह हूँ ख़ुद के लिए_
-मगर सबकी परवाह करता हूँ।_
मालूम है_
कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी_
कुछ अनमोल लोगों से_
-रिश्ते रखता हूँ
©Misti Singh
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