मकाम आते जाते रहे जिंदगी में मगर जारी अपना सफर रहा।
घर से दूर रहके भी हर कहीं हमेशा घर अपना मद्देनजर रहा।।
ना किसी महफिल में ना किसी अंजुमन में दिल बहल पाया,
परदेश में भी गाँव की गलियों-चौपाल का ऐसा असर रहा।
मुस्तकबिल के ख्वाब मुकम्मल के वास्ते ख्वाहिशमंद तो थे हम,
उम्र के गुजरे दौर से मुहब्बत का ताल्लुक लेकिन बराबर रहा।
हजारों लोगों से मिलने जुलना होता है यहां दुनियादारी में,
तन्हा आलम में मगर इल्म औ अदब ही साथी कारगर रहा।
किस्सा-ए-जिंदगी भी जैसे दास्तान-ए-मुहब्बत थी कोई,
हम आशिक थे कोई और रोजगार अपना दिलबर रहा।।
©भारद्वाज
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