मुझे आदत है खुदको तुम्हारे अंदर देखने की। शिशा तो युँही बदनाम है मैं देखा करता हूँ अपना जहाँ उन दो आँखों में, ये काँच के टुकड़े तो बस युँही ही बिखरे है, वो दो निगाहे सिर्फ निगाहे नही ठिकाना है मेरी हर मुस्कुराहटों का, इंतेज़ार का, हर खुशी का, गम का, तमभाओं का हर एक भाव का। है वो दो निगाहें संसार जैसे मेरा जब देखें उन्हें तभी हो सुकुं हासिल।
मेरा सवेरा है वो, शामें भी है ढलती मेरी उन्ही से जो न देख पाऊ तो हुँ मै अधुरा उन्ही से ।
©SAHIL KUMAR
वो दो निगाहें