चोट मिलती रही,
मैं चलता रहा।
ज़ख्म बढ़ते रहे,
मैं सिलता रहा।।
ना देखा कभी,
मुड़कर राहों को।
होते रहे ज़ख्मी,
निज पाँवों को।।
बना नादान मैं,
बस खिलता रहा।
ज़ख्म बढ़ते रहे,
मैं सिलता रहा।।
पी लिया दर्द तभी,
गले लगाकर।
जी गया मैं सभी,
गम को भुलाकर।।
जल रात भर मैं,
बस पिघलता रहा।
ज़ख्म बढ़ते रहे,
मैं सिलता रहा।।
चोट मिलती रही,
मैं चलता रहा।
ज़ख्म बढ़ते रहे,
मैं सिलता रहा।।
©#राji,,,,💞💞💞💞
#walkingalone