स्वप्न में आते हो प्रियतम!
यामिनी अभिसार बनकर।
पर अपरिचित से क्यूँ लगते?
दिवा के इस यथार्थ मग में।
कामना अभिशप्त होती,
याचना जब हो तिरस्कृत।
रिक्त अंतस आह क्रँदित ,
वेदना अतिरेक जग में।
प्रेम की अवहेलना से,
मन सदा रहता निराशित।
लाज के ये बंध सर्पिल,
बंध गये हैं क्षीण पग में।
मौन का घन आवरण,
तज मिलो अब तो सजन।
प्रणय पोषित प्रीत मधुकर,
गुँजार हो अवरुद्ध रग में।
©Sneh Lata Pandey 'sneh'
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