क्या उस जमाने को ख़बर कर रहा हूँ मैं कि कैसे अपनी | हिंदी शायरी

"क्या उस जमाने को ख़बर कर रहा हूँ मैं कि कैसे अपनी गुजर बसर कर रहा हूँ मैं तुम तो आये और आकर चले भी गये खुद आप अपनी फिकर कर रहा हूँ मैं कैसे भी तो जुड़े दिल बिखरा पड़ा है टुकड़े उसी के इधर उधर कर रहा हूँ मैं मेरे चेहरे पे मरने वालों ख़बर है तुम्हें आँखों में अपनी समंदर भर रहा हूँ मैं छू लिया फलक तक कहीं कूछ नहीं वापस अपनी जमीं को उतर रहा हूँ मैं ©अज्ञात"

 क्या उस जमाने को ख़बर कर रहा हूँ मैं 
कि कैसे अपनी गुजर बसर कर रहा हूँ मैं 

तुम तो आये और आकर चले भी गये 
खुद आप अपनी फिकर कर रहा हूँ मैं 

कैसे भी तो जुड़े दिल बिखरा पड़ा है 
टुकड़े उसी के इधर उधर कर रहा हूँ मैं 

मेरे चेहरे पे मरने वालों ख़बर है तुम्हें 
आँखों में अपनी समंदर भर रहा हूँ मैं 

छू लिया फलक तक कहीं कूछ नहीं 
वापस अपनी जमीं को उतर रहा हूँ मैं

©अज्ञात

क्या उस जमाने को ख़बर कर रहा हूँ मैं कि कैसे अपनी गुजर बसर कर रहा हूँ मैं तुम तो आये और आकर चले भी गये खुद आप अपनी फिकर कर रहा हूँ मैं कैसे भी तो जुड़े दिल बिखरा पड़ा है टुकड़े उसी के इधर उधर कर रहा हूँ मैं मेरे चेहरे पे मरने वालों ख़बर है तुम्हें आँखों में अपनी समंदर भर रहा हूँ मैं छू लिया फलक तक कहीं कूछ नहीं वापस अपनी जमीं को उतर रहा हूँ मैं ©अज्ञात

#गुजर

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