शेर डरा सहमा सा ठंड की अंधेरी रात में कभी निकलता | हिंदी Poetry

"शेर डरा सहमा सा ठंड की अंधेरी रात में कभी निकलता हूँ अपने ही शहर में गुमनाम जिंदगी जीता हूँ। शुक्र है आईने का दोस्तों जिसने मेरी औकात बता दी वरना रहते मुगालते में और जिंदगी यूं ही गुजर जाती । बेतहाशा दौड रहे लोग शहर की सडकों पर ना कोई मंजिल है कहीं ना ही कोई मकाम है। ©Ankur Mishra"

 शेर
डरा सहमा सा ठंड 
की अंधेरी रात में 
कभी निकलता हूँ 
अपने ही शहर में 
गुमनाम जिंदगी जीता हूँ।

 शुक्र है आईने का दोस्तों
जिसने मेरी औकात बता दी
 वरना रहते मुगालते में और 
जिंदगी यूं ही गुजर जाती ।

बेतहाशा दौड रहे लोग 
शहर की सडकों पर 
ना कोई मंजिल है कहीं
ना ही कोई मकाम है।

©Ankur Mishra

शेर डरा सहमा सा ठंड की अंधेरी रात में कभी निकलता हूँ अपने ही शहर में गुमनाम जिंदगी जीता हूँ। शुक्र है आईने का दोस्तों जिसने मेरी औकात बता दी वरना रहते मुगालते में और जिंदगी यूं ही गुजर जाती । बेतहाशा दौड रहे लोग शहर की सडकों पर ना कोई मंजिल है कहीं ना ही कोई मकाम है। ©Ankur Mishra

शेर

डरा सहमा सा ठंड
की अंधेरी रात में
कभी निकलता हूँ
अपने ही शहर में
गुमनाम जिंदगी जीता हूँ।

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