इसकदर महफूज था मैं अपने आशियाने के शान और शौकत में |
की इजहार ना हुआ किसी से ना दिल ने किया जिक्र तेरा ||
गुफ्तगू की मैंने शराब से तुम्हारी पर एक लफ्ज़ ना सुना तुम्हारे खिलाफ
तुम्हारी बेवफाई ने जब साथ छोड़ा तब इसने ही हाथ थामा था मेरा |
अर्जमन्द था वो जिसने मुझको परखा तेरे ख्यालो के लिए |
और तूने अपनी राह ही बदल डाली कुछ उलझते सवालो के लिए ||
तब से अब तक पूछ रहा हु मेरे उस रब से मैं |
की तुझे कितनी मिट्टी लगेगी मुझे वापस इंसान बनाने के लिए |
शिकायते कर जाते है राह में मिले मुसाफिर भी|
की तुम मुझे भूल गए उसके यादो में जाने के लिए |
शराब का सहारा लिया मैंने बस चलती जिंदगी को ख़ुशी से काटने के लिए।
वरना तेरी आदत ही काफी थी आँखों में आँशु लाने के लिए।
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