तेरे बिन पूछे सवालों का भी जवाब रखती हूँ,
हकीकत भी मैं रखती हूँ ;संग ख्वाब रखती हूँ।
आँसू के दाग भी रखती, और उसकी छाप रखती हूँ,
उसके साथ हसीन पल भी लाजवाब रखती हूँ।
सुनहरे काग़ज भी मेरे;और मैं ही खाक रखती हूँ।
तूने दरगाह में जो सजदा किया, उसकी गवाह भी मैं,
पर मैं ध्यान में संग संग तेरे ज़िक्र नापाक भी रखती हूँ।
कभी हामी भी भरती हूँ, कभी खामी भी रखती हूँ।
कभी दोनों को भी करके, मैं नाकाम होती हूँ।
तूने जो झूठ थे उगले ,और सच के घूंट थे मारे।
तूने जो अश्क भी निगले, बहे न डर के जो मारे।
जब तू था बना काँधा बिना उस रीढ़ वाले का।
या जब छीन गया लाठी, किसी तू बेसहारे का।
जब तू सोया था बिस्तर पर, बिना कुछ एक निवाले के।
या जब है भरा पूरा, न कुछ है सताने को।
मैं तब भी तेरे संग थी, अब तेरा साथ रखती हूँ।
तेरे ज़ज्बात जब तेरे लबों पर न उतर पायें,
मैं उस पल के लिए भी
तेरे लिए अल्फाज रखती हूँ।
मैं तेरे मन की कलम हूँ,
तेरे हर कर्म का मैं हिसाब रखती हूँ।
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