White "कपटी मानव अबला नारी"
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ए मूर्ख मानव तेरा कितना हैं बल।
क्या सीखा हैं तूने बस करना छल।।
जानवर से भीं बद्तर हैं तेरी अकल।
बनकर दुशासन करता हैं जुल्म कतल।।
ये क्या हों गया है दुनियां को आजकल।
चेहरे पे अमृत का मुखौटा मन में भरा गरल।।
लुटते हों मासूमों की इज़्ज़त आबरू ज़ालिम।
बेरहम कातिल दुष्ट निर्लज कैसी है तेरी तालीम।।
समझते हों स्त्री को तुम सिर्फ खिलौना।
उसकी मासूमियत को असहाय बौना।।
कैसे मसल दिया तू एक खिलती कली फूल को।
कैसे कुचल दिया तूने मानवता के सिद्धांत रूल को।।
तनिक लज्जा नहीं आई तुझे उसकी चीख पर।
पाव नहीं डगमाए तेरे उस अबला के भीख पर।।
कहते हैं लोग की जमाना गया हैं बदल।।
हैं आजाद हिंद स्वतंत्र भारत देश सफल।।
फिर कैसा हैं ये राक्षसो का कपटी शकल।
कहां करते हैं ये नियत के खोट नकल।।
कैसे पहचानें कोई किसी दुरात्मा पापी को।
मुख मे राम बगल में छूरी वाले अपराधी को।।
बिनकसूर तड़पकर दम तोड़ी होंगी।
अख़बार की सुर्खियां शर्मसार हो गई।।
मां की दुलारी पापा की प्यारी परी।
बेरहम हैवानियत की शिकार हों गईं।।
कहते हैं डॉक्टर होता हैं भगवान का रूप।
फिर कैसे कोई लिया अपने भगवान को ही लूट।।
अरे ओ दानव पुरूष कहां गईं तेरी पुरुषार्थ।
निरर्थक साबित हैं तेरी भ्रष्ट बुद्धि पार्थ कृतार्थ।।
काश बनकर स्त्री कभी स्त्री का दुःख
दर्द तुम भी तन मन में महसूस करते।
तो ऐसी घिनौनी दुसाहस हरकत कभी
तुम दुष्ट प्रवृत्ति मनहूस मनुष्य न करते।।
सदियों से बहु बहन बेटियां रही हैं सीधी चुप।
अरे अब तो देखने दो उसे जुल्मी जग कुरूप।।
लेने दो उसे खुली सांसे सूरज की उर्जवान धूप।
यहीं तो हैं सृष्टि प्रकृति ब्रह्मांड सुंदरी स्वरूप।।
स्वरचित:- प्रकाश विद्यार्थी
भोजपुर बिहार
©Prakash Vidyarthi
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