कह नहीं सकता कितने गहन विचारों पर
मगर वो पग पग चलती है अंगारों पर..!
दुखों का पर्याय बन चुका जीवन जिसका
अब डोलती नहीं दुखों के प्रहारों पर..!
ओढ़ रख्खी है चूनर निज लक्ष्य कर्तव्य की
और बे-परवाह बढ़ चली प्रतिकारों पर..!
दमकती आभा से लज्जित हर सौंदर्य भी
कुंदन काया भारी है सब श्रृंगारों पर..!
पर कहीं तो अंत होगा मानुषी सामर्थ्य का
कहीं तो विराम हो कष्ट की कतारों पर..!
अंगारों पे चलकर भी ज़ब कराहती नहीं
तब कोई सवाल उठता है सृष्टि करतारों पर..!
क्या ईश्वरीय विधान में भावों का कोई मोल नहीं
या वो भी रहा नामदृष्टा कल्पित आधारों पर..!
©अज्ञात
#feelings