तेरी बुराइयों को हर अख़बार कहता है , और तू मेरे ग | हिंदी कविता

"तेरी बुराइयों को हर अख़बार कहता है , और तू मेरे गांव को गँवार कहता है , ऐशहर मुझे तेरी औक़ात पता है , तू चुल्लू भर पानी को भी वाटर पार्क कहता है , थक गया है हर शख़्स काम करते - करते , तू इसे अमीरी का बाज़ार कहता है , गांव चलो वक्त ही वक्त है सबके पास , तेरी सारी फुर्सत तेरा इतवार कहता है , मौन होकर फोन पर रिश्ते निभाए जा रहे हैं , तू इस मशीनी दौर को परिवार कहता है , जिनकी सेवा में खपा देते थे जीवन सारा , तू उन माँ बाप को अब भार कहता है , वो मिलने आते थे तो कलेजा साथ लाते थे , तू दस्तूर निभाने को रिश्तेदार कहता है , बड़े - बड़े मसले हल करती थी पंचायतें , तु अंधी भ्रष्ट दलीलों को दरबार कहता है , बैठ जाते थे अपने पराये सब बैलगाडी में , पूरा परिवार भी न बैठ पाये उसे तू कार कहता है , अब बच्चे भी बड़ों का अदब भूल बैठे हैं , तू इस नये दौर को संस्कार कहता है... राहुल प्रधान"

 तेरी बुराइयों को हर अख़बार कहता है ,
 और तू मेरे गांव को गँवार कहता है ,
 ऐशहर मुझे तेरी औक़ात पता है , 
तू चुल्लू भर पानी को भी वाटर पार्क कहता है ,
 थक गया है हर शख़्स काम करते - करते ,
 तू इसे अमीरी का बाज़ार कहता है ,
 गांव चलो वक्त ही वक्त है सबके पास ,
तेरी सारी फुर्सत तेरा इतवार कहता है ,
 मौन होकर फोन पर रिश्ते निभाए जा रहे हैं , 
तू इस मशीनी दौर को परिवार कहता है ,
 जिनकी सेवा में खपा देते थे जीवन सारा ,
 तू उन माँ बाप को अब भार कहता है ,
वो मिलने आते थे तो कलेजा साथ लाते थे ,
 तू दस्तूर निभाने को रिश्तेदार कहता है ,
बड़े - बड़े मसले हल करती थी पंचायतें ,
 तु अंधी भ्रष्ट दलीलों को दरबार कहता है ,
बैठ जाते थे अपने पराये सब बैलगाडी में ,
 पूरा परिवार भी न बैठ पाये उसे तू कार कहता है ,
अब बच्चे भी बड़ों का अदब भूल बैठे हैं ,
 तू इस नये दौर को संस्कार कहता है... राहुल प्रधान

तेरी बुराइयों को हर अख़बार कहता है , और तू मेरे गांव को गँवार कहता है , ऐशहर मुझे तेरी औक़ात पता है , तू चुल्लू भर पानी को भी वाटर पार्क कहता है , थक गया है हर शख़्स काम करते - करते , तू इसे अमीरी का बाज़ार कहता है , गांव चलो वक्त ही वक्त है सबके पास , तेरी सारी फुर्सत तेरा इतवार कहता है , मौन होकर फोन पर रिश्ते निभाए जा रहे हैं , तू इस मशीनी दौर को परिवार कहता है , जिनकी सेवा में खपा देते थे जीवन सारा , तू उन माँ बाप को अब भार कहता है , वो मिलने आते थे तो कलेजा साथ लाते थे , तू दस्तूर निभाने को रिश्तेदार कहता है , बड़े - बड़े मसले हल करती थी पंचायतें , तु अंधी भ्रष्ट दलीलों को दरबार कहता है , बैठ जाते थे अपने पराये सब बैलगाडी में , पूरा परिवार भी न बैठ पाये उसे तू कार कहता है , अब बच्चे भी बड़ों का अदब भूल बैठे हैं , तू इस नये दौर को संस्कार कहता है... राहुल प्रधान

#StarsthroughTree

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