मैं अजनबी राहों का गुमनाम मुसाफिर हूं
ना खबर है दुनियादारी की ना खुद से वाक़िफ हूं,
लेकिन एक उम्र है पास मेंरे
और तजुर्बा उसका कहता है,
इंसान इंसानियत से परे है अब
मतलब तक साथ रहता है,
तुम चुटकी भर मांगोगे मरहम
यहां हर मुठ्ठी में नमक रहता है,
आशियाना जलाकर परिंदे का
कहेंगे दूर शहर में रहता है,
कंधे पर हाथ रखने वालो से
संभलकर रहना साफ दिल वालो
एक हाथ करेगा दिखावा हमदर्दी का
दूजे में खंजर रहता है!
©Yogesh sood humrahi
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