आज फिर आसमाँ फूट फूट कर रो रहा था।
धरा को आँसुओ की बारिश से भिगो रहा था।
लगा शायद धरा ने आसमाँ से कोई बेवफाई की है,
और आसमाँ यह सोचकर जज्बाती हो रहा था।
आसमाँ रोये जा रहा था और धरा परेशान थी।
शायद यह बारिश आने वाली बाढ़ का ऐलान थी।
लेकिन इसमें उसकी क्या ख़ता थी आखिर,
वो ना तो भगवान थी ना ही इंसान थी।
वो तो किसी और के किये की कर्ज चुका रही थी।
इंसान की नादानियों के चलते खुद को तनहा पा रही थी।
आसमाँ भी व्याकुल सा था इस बर्बादी के मंज़र को देखकर,
अब क्षितिज पर अंधेरी सी परछाई नज़र आ रही थी।
वही क्षितिज जो उनका मिलने का स्थान था।
जहाँ जगमगाता कभी सूरज कभी चाँद था।
आज घोर अंधेरा छाया था वहाँ पर भी,
और इसका कारण सिर्फ और सिर्फ इंसान था।
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