ख़लल पड़ता है- 2 (Khalal padta hai) Shayari/ Ghazal/ Poem by Rahat Indori (राहत इंदौरी) || SOHBAT
रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है
एक दीवाना मुसाफ़िर है मिरी आँखों में
वक़्त-बे-वक़्त ठहर जाता है चल पड़ता है