White लावणी छन्द इस माँ से जब दूर हुआ तो , धरती मा | हिंदी कविता

"White लावणी छन्द इस माँ से जब दूर हुआ तो , धरती माँ के निकट गया । भारत माँ के आँचल से तब , लाल हमारा लिपट गया ।। सरहद पर लड़ते-लड़ते जब , थक कर देखो चूर हुआ । तब जाकर माँ की गोदी में , सोने को मजबूर हुआ ।। मत कहो काल के चंगुल में , लाल हमारा रपट गया । जाने कितने दुश्मन को वह , पल भर में ही गटक गया ।। सब देख रहे थे खड़े-खड़े , अब उस वीर बहादुर को । जिसके आने की आहट भी , कभी न होती दादुर को ।। पोछ लिए उस माँ ने आँसूँ, जिसका सुंदर लाल गया । कहे देवकी से मिलने अब , देख नन्द का लाल गया ।। तीन रंग से बने तिरंगे , का जिसको परिधान मिले । वह कैसे फिर चुप बैठेगा , जिसको यह सम्मान मिले ।। सुबक रही थी बैठी पत्नी , अपना तो अधिकार गया । किससे आस लगाऊँ अब मैं , जीने का आधार गया ।। और बिलखते रोते बच्चे , का अब बचपन उजड़ गया । कैसे खुद को मैं समझाऊँ , पेड़ जमीं से उखड़ गया ।। महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR"

 White लावणी छन्द
इस माँ से जब दूर हुआ तो , धरती माँ के निकट गया ।
भारत माँ के आँचल से तब , लाल हमारा लिपट गया ।।
सरहद पर लड़ते-लड़ते जब , थक कर देखो चूर हुआ ।
तब जाकर माँ की गोदी में , सोने को मजबूर हुआ ।।

मत कहो काल के चंगुल में , लाल हमारा रपट गया ।
जाने कितने दुश्मन को वह , पल भर में ही गटक गया ।।
सब देख रहे थे खड़े-खड़े , अब उस वीर बहादुर को ।
जिसके आने की आहट भी , कभी न होती दादुर को ।।

पोछ लिए उस माँ ने आँसूँ, जिसका सुंदर लाल गया ।
कहे देवकी से मिलने अब , देख नन्द का लाल गया ।।
तीन रंग से बने तिरंगे , का जिसको परिधान मिले ।
वह कैसे फिर चुप बैठेगा , जिसको यह सम्मान मिले ।।

सुबक रही थी बैठी पत्नी , अपना तो अधिकार गया ।
किससे आस लगाऊँ अब मैं , जीने का आधार गया ।।
और बिलखते रोते बच्चे , का अब बचपन उजड़ गया ।
कैसे खुद को मैं समझाऊँ , पेड़ जमीं से उखड़ गया ।।

महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

White लावणी छन्द इस माँ से जब दूर हुआ तो , धरती माँ के निकट गया । भारत माँ के आँचल से तब , लाल हमारा लिपट गया ।। सरहद पर लड़ते-लड़ते जब , थक कर देखो चूर हुआ । तब जाकर माँ की गोदी में , सोने को मजबूर हुआ ।। मत कहो काल के चंगुल में , लाल हमारा रपट गया । जाने कितने दुश्मन को वह , पल भर में ही गटक गया ।। सब देख रहे थे खड़े-खड़े , अब उस वीर बहादुर को । जिसके आने की आहट भी , कभी न होती दादुर को ।। पोछ लिए उस माँ ने आँसूँ, जिसका सुंदर लाल गया । कहे देवकी से मिलने अब , देख नन्द का लाल गया ।। तीन रंग से बने तिरंगे , का जिसको परिधान मिले । वह कैसे फिर चुप बैठेगा , जिसको यह सम्मान मिले ।। सुबक रही थी बैठी पत्नी , अपना तो अधिकार गया । किससे आस लगाऊँ अब मैं , जीने का आधार गया ।। और बिलखते रोते बच्चे , का अब बचपन उजड़ गया । कैसे खुद को मैं समझाऊँ , पेड़ जमीं से उखड़ गया ।। महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

लावणी छन्द
इस माँ से जब दूर हुआ तो , धरती माँ के निकट गया ।
भारत माँ के आँचल से तब , लाल हमारा लिपट गया ।।
सरहद पर लड़ते-लड़ते जब , थक कर देखो चूर हुआ ।
तब जाकर माँ की गोदी में , सोने को मजबूर हुआ ।।

मत कहो काल के चंगुल में , लाल हमारा रपट गया ।
जाने कितने दुश्मन को वह , पल भर में ही गटक गया ।।

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