इस शहर के कोलाहल में
मेरे मन के कोलाहल तू कैसे समझेगा?
पापा का साया जब सिर से हटा
कब बेटी से बेटा हो गई पता न चला
जिंदगी जब दोहरे पड़ाव पर खड़ी हो तो
तू जिम्मेदारियों के बोझ को कैसे समझेगा?
एक परिंदे की तरह ऊंची उड़ान चाहती हूं
किस्मत में लिखे अंधेरे को खुद से मिटाना चाहती हूं
इस बंजर भूमि को फिर उर्वर बनाना चाहती हूं
मगर मेरे मन में चल रहे महायुद्ध को
तू अर्जुन की तरह कैसे समझेगा?
लिखती हूं, मिटाती हूं, तरसती हूं ख़ुद को
फिर भी कुछ अधूरा सा पाती हूं
गिरती हूं ,उठती हूं, चलती हूं, थकती हूं
अपने दर्द पर मरहम खुद से लगाती हूं
मगर मेरे इस संघर्ष भरी कहानी तू कैसे समझेगा?
©Aadi