मैं बढ़ तो गई हुँ आगे,
मगर घबरा रही हुँ,
मंजिल के पास पहुँच तो गई हुँ,
फिर भी न जाने क्यों कतरा रही हुँ...
खुद से रूबरु होने की घरी तो आ गई हैं,
पर ऐसा लग रहा हैं मानो,
मैं खुद को पीछे कहीं छोड़ आई हुँ...
मैं जब ढुढंने चली खुद को,
तो सिर्फ काली घाटियाँ मिली,
जब देखा खुद को गौड़ से,
टुटे हुए विश्वास के पास,
रोती हुई मेरी पछाईयाँ दिखी...
पूछा जब परछाईयों से-
तू क्यों रोती अकेली यहाँ?
परछाई से आवाज़ आई-
ढुंढ रही हुँ तन्हाईयों में,
मेरा खोया हुआ प्यारा-सा संसार।
_कोमल साह
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