सारे जहां को भूल गए
एक पल में ही वो रस्मों रिवाजों को भूल गए
मैं डरा सहमा सा एक टक सोचता रहा
हस्र अपना
वो बोल बैठे हम तेरे खातिर
अपना घर बार भूल गए
बड़ी कश्मकश रही सीने में
सजा–ए–मोहब्बत सोचकर
वो जो थी मुझे अपने घर से
वो फिक्र भूल गए।
रही दास्तां हमारी भी दर्ज किताबों में कई सदी
वो जो थी एक कहानी पुरानी
वो एक दिन मिले तो बोले
माफ करना हम आपकी शक्ल भूल गए......
©Aaryan lalit
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