ग़ज़ल
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इस डगर तो कभी उस डगर में रहे
लोग जो जिंदगी भर सफर में रहे।
वो कदम जानें क्या कंटकों की चुभन
हर समय जो हजर अपने घर में रहे।
बोल पाये नहीं लब्ज सच के कोई
टीवी अखबार भरपूर डर में रहे।
बात होती नहीं है गरीबी पै अब
सिर्फ मंदिर व मस्जिद खबर में रहे।
धर्म का केतु फिर भी संभाले हैं वो
कूदते चूहे जिनके उदर में रहे।
देश में युद्ध को दे रहे हैं हवा
रहनुमा बनके सबकी नज़र में रहे।
ये सियासत भी करदम गज़ब चीज़ है
ताज कैसे मिले इस फ़िकर में रहे।।
सुनील कुमार कर्दम
©Sunil Kumar Kardam
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