Unsplash ज़िन्दगी की शाम ढलती चली गई !
उम्मीदें हाथ से फिसलती चली गई !
ये वक़्त का कारवाँ रुका नही कभी,
शक्ल मजबूरियाँ बदलती चली गई !
पहुँची न हसरतें मंज़िले मक़सूस तक,
नाकामियाँ हमें निगलती चली गई !
ज़िम्मेवरियों की लत लगी इस क़दर,.
आवारगी मेरी हाथ मलती चली गई !
कलतक थे जो अपने वो बेवफ़ा हुए,
दिल्लगी मेरी मुझे छलती चली गई !
©T4_tanya_
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