ये दरवाज़ा देख रहो हो?
इसने कयी पतझड़, कयी सावन देखें हैं,
पर अब हल्की नमी से अड़ जाता है,
और खोलो तो ये चीख उठता है।
इसकी बाज़ुओं पे चढ़ अक्सर झूल जाते थे,
हो भीषण तूफ़ान, चाहे सूर्य उगलता आग,
ये दरवाज़ा अपने पीछे हमें महफूज़ रखता था।
वो दरवाज़े पे लगी खूँटी हमारे ख़्वाबों का बोझ उठाती थी,
कयी मर्तबा दरवाज़े पे जड़ा आईना होता था,
वो आईना जो हमें ख़ुद से रूबरू कराता था।
इसके चेहरे की झुर्रियों में यादें समायी हैं,
और कभी गर्द की पुरानी परत भी नज़र आ जाती है।
दरवाज़े से आती नए रंग की खुश्बू,
एक नया ज़िन्दगी का दौर लाती है।
हम भूल जाते हैं,
कि अब हमें पासबान बनने की ज़रूरत है।
और हम भूल जाते हैं,
की वो दरवाज़ा अब बूढ़ा हो चला है।— % &